
भारत दाल-रोटी खाकर गुजर-बसर करने वाला देश रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आम आदमी की थाली से दालें गायब हो रही हैं। वजह, दालों का उत्पादन-रकबा आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है और कीमतें बढ़ने से दालें गरीबों के बजट से बाहर हो रही हैं। वहीं दूसरी ओर कम उपज, लाभकारी मूल्य न मिलना, जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण पोषण का खजाना और पर्यावरण हितैषी इस फसल से किसानों का मोहभंग हो चला है। बहुत से किसानों ने दलहन की जगह गेहूं, धान या सोयाबीन जैसी फसलों से नाता जोड़ लिया है। यह स्थिति क्यों आई और भारतीय कृषि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर क्यों दालों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देश की आयात पर निर्भरता बढ़ रही है? दालों की कम उपलब्धता स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करेगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? खाद्य और पोषण सुरक्षा में दालों के महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने साल 2016 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ पल्सेस घोषित किया गया था। सिंबायोसिस ऑफ लाइफ” रिपोर्ट में दालों और मिट्टी से गुणवत्ता के मध्य अंतरनिर्हित संबंध स्थापित किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, टिकाऊ खाद्य उत्पादन, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा और सतत विकास के लक्ष्य (एसडीजी) को हासिल करने के लिए दालें और मिट्टी की गुणवत्ता बहुत जरूरी हैं। दोनों एक-दूसरे की पूरक है। एफएओ की रिपोर्ट के अनुसार, मिट्टी बहुत सी पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान करती है जो मानव कल्याण और धरती पर जीवन का मूल आधार है। आबादी के विकास और उपभोग की प्रवृत्ति में बदलाव के कारण मिट्टी पर दबाव काफी बढ़ गया है। मिट्टी का अधिक उत्पादन के दबाव के कारण उसकी गुणवत्ता लगातार क्षीण हो रही है। अनुमान के मुताबिक, दुनिया की 33 प्रतिशत भूमि डिग्रेड अथवा बंजर हो चुकी है। रिपोर्ट आगे बताती है कि मिट्टी को गुणवत्ता को बनाए रखने या बढ़ाने में दालें उपयोगी साबित हो सकती हैं। दलहन और फलियों की जड़ों में मिट्टी को समृद्ध करने वाले बैक्टीरिया होते हैं जिन्हें सामूहिक रूप से राइजोबियम कहा जाता है। इसीलिए दालें पर्यावरणीय नाइट्रोजन का जैविक स्थरीकरण करती हैं। साथ ही फास्फेट का कैल्शियम और आयरन फास्फेट से विलयन करती है। नाइट्रोजन स्थरीकरण और फास्फोरस चक्र में योगदान के अलावा दालें मिट्टी में जैविक तत्वों को बढ़ाती है, गुणवत्ता सुधारती है और उसकी जैव विविधता बरकरार रखती है।