
सोयाबीन और अरहर के बीच लेकर आईआईपीआर के वैज्ञानिक सी भारद्वाज बताते हैं कि इंदिरा नहर से राजस्थान के श्रीगंगानगर में पानी की उपलब्धता हुई और उसने वहां बाजरे की फसल को ही पूरी तरह समाप्त कर दिया। पानी की उपलब्धता फसल चक्र को बदल देती है। ऐसे में सूखे क्षेत्रों में पानी का इंतजाम करने वाले किसान सोयाबीन के खेतों में अच्छा भाव और उन्नत किस्म बीज न मिलने के कारण अरहर की इंटरक्रॉपिंग को धीरे-धीरे और ज्यादा कम कर सकते हैं।भारद्वाज कहते हैं कि यदि किसी को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलेगा तो वह क्यों ऐसी फसल पैदा करेगा? न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दालों पर जरूर है लेकिन उसकी उतनी खरीद नहीं होती। इसलिए किसान कम उपज और लंबी अवधि वाली तुअर की फसलों को छोड़कर सोयाबीन की फसल को अपना लेते हैं क्योंकि बाजार से इन्हें आसानी से भाव मिल जाता है। ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र अग्रवाल ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि दालों की एमएसपी बढ़ाई जरूर गई है लेकिन किसानों के दाल पैदा करने में जितनी लागत लगती है, एमएसपी उसके बराबर या उससे कम है। ऐसे में अरहर की एमएसपी 6,000 रुपए के बजाए कम से कम 7,000 रुपए तक होनी चाहिए। अरहर को खरीदारी नेफेड एजेंसी करती है लेकिन महाराष्ट्र के वाशिम जिले में किसान उत्पादन संगठन चलाने वाले ग्यानेश्वर डेकाले बताते हैं कि नेफेड किसानों से दाल खरीदने के लिए बहुत कम समय देती है। रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया जटिल होती है, उसके बाद 45 दिन की तय सीमा में दालों को देना होता है। दालों की वैराइटी और गुणवत्ता का भी मुद्दा होता है। ऐसे में किसान नेफेड के बजाए मंडी में ही दाल बेच देते हैं। पांच प्रमुख दलहन हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में हैं, उनमें चना, अरहर, उड़द, मूंग, मसूर शामिल हैं।कीमतों को नियंत्रित करने और आयात घटाने को लेकर रबी मार्केट सीजन 2021-2022 के लिए सरकार ने चना का एमएसपी 4,875 रुपए से बढ़ाकर 5,100 रुपए और मसूर का 4,800 रुपए से बढ़ाकर 5,100 रुपए किया है। जबकि अरहर और उड़द का एमएसपी अभी 6,000 रुपए है और मूंग का एमएसपी 7,196 रुपए है। मध्य प्रदेश में सिहोर जिले के कृषक प्रवीण परमार बताते हैं कि अरहर के क्षेत्र का विस्तार तो थमा है लेकिन सोयाबीन की खली का अंतरराष्ट्रीय बाजार भाव अच्छा रहता है। इससे किसानों को बेहतर दाम मिल जाता है।1960 में दालों की उपज स्थिर बनी हुई थी और देश खाद्य संकट से जूझ रहा था। ऐसे में 1960 में उत्तराखंड के पंतनगर स्थित जीबी पंत यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर और जबलपुर में जवाहर नेहरू कृषि विश्वविद्यालय व अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉस ने संयुक्त रूप से सोयाबीन की उपज बढ़ाकर प्रोटीन की कमी को दूर करने का एक प्रयास शुरू हुआ। प्रारंभिक ट्रायल 1965-66 में हुए। 110 से 130 दिनों में तैयार होने वाली, प्रति हेक्टेयर 3 से 4 टन की उपज वाली दक्षिणी अमेरिका के सोयाबीन किस्म का इस्तेमाल किया गया। बाद में 1 अप्रैल 1967 से इसे इंडियन काउंसिल एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) के जरिए प्रमोट किया गया। वैज्ञानिकों के प्रयास जारी रहे। भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान के मुताबिक, 1970-71 में भारत में सोयाबीन का रकबा 32 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में था जो 2020-21 में बढ़कर 1.29 करोड़ हेक्टेयर पहुंच गया है। इसी तरह सोयाबीन का उत्पादन भी 1960 में 14 हजार टन व उपज 426 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी। 2020-21 में यह उत्पादन बढ़कर 1.37 करोड़ टन व उपज 1,056 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो चुकी है (देखें, सोयाबीन ने पछाड़ा, पेज 33)। इस बीच दलहन की फसलें उपेक्षित रही हैं और अपनी उपज को लेकर अब तक जूझ रही हैं। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर के वैज्ञानिक बीबी सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ भारत में सोयाबीन की सफलता और शुरुआती चुनौतियों पर समर्थन नाम के एक शोध पत्र में लिखा है कि आईसीएआर के तत्कालीन निदेशक रहे एमएस स्वामीनाथन ने 1970 की शुरुआत में कहा, “जब तक फसल 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र और 10 लाख टन प्रतिवर्ष का उत्पादन न दे तो भारतीय अर्थव्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आएगा। इसके बाद वैज्ञानिकों ने मध्य प्रदेश की उन जमीनों को सोयाबीन के लिए प्रयोगस्थल बनाया जो कि अर्धशुष्क थीं। यदि पांच प्रमुख दलहन फसलों को रबी और खरीफ के आधार पर बांटकर देखें तो दलहन फसलों में कुल 60 फीसदी की हिस्सेदारी अकेले रबी सीजन में चना (2020-21 में रिकॉर्ड 126 लाख टन) रखता है। यदि दलहन के कुल उत्पादन (2020-21 में 255 लाख टन) में से चना को हटा दें तो अरहर, मूंग, उड़द और मसूर के उत्पादन, क्षेत्र और उपज का सिर्फ 40 फीसदी आंकड़ा शेष रहेगा। दलहन में चना एक मजबूत स्तंभ है और अन्य दालों के मुकाबले इसका उपभोग कई तरह से किया जा सकता है।हालांकि, रबी सीजन में चना क्षेत्र, उत्पादन और उपज बढ़ाना अब भी एक चुनौती है। अच्छे और उन्नत बीजों का अभाव है। दलहन क्षेत्र में एक बड़ा संकट खरीफ सीजन में बोई जाने वाली प्राइम दालों का है, जिसकी कीमतें करीब हर वर्ष बढ़ने के कारण गरीब और मध्यम वर्ग को झटका लगता है। इन प्राइम दालों में तुअर (अरहर), मूंग, उड़द शामिल हैं।