रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण भारत में पहले से चल रही उर्वरक की असंतुलित खपत इस खरीफ सत्र में और अधिक असंतुलित हो गई है। इस असंतुलन की वजह से लंबे समय तक मिट्टी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका भी गहराने लगी है।
2019 के कोविड पूर्व अवधि की तुलना में इस बार अप्रैल-अक्टूबर के बीच म्यूरेट ऑफ पोटाश (एमओपी) की बिक्री में 39 फीसदी की गिरावट देखने को मिली, क्योंकि किसानों ने इसके ज्यादा दाम के कारण यूरिया, डाई-अमोनिया फॉस्फेट और एनपीकेएस (सोडियम, फास्फोरस, पोटेशियम और सल्फर) का रुख किया और इस महत्वपूर्ण फसल पोषक तत्व का कम इस्तेमाल किया।
अप्रैल-अक्टूबर 2021 की तुलना में भी एमओपी की बिक्री में लगभग 48 फीसदी गिरावट आई है।
उद्योग के जानकारों ने कहा कि इसके परिणामस्वरूप भारत के उर्वरक खपत में गड़बड़ी (एनपीके उपयोग का अनुपात) खरीफ 2022 में 12.8:5.1:1 हो गई, जबकि खरीफ 2021 में यह 6.8:2.7:1 थी। देश के लिए आदर्श औसत एनपीके अनुपात 4:2:1 है। इस अनुपात में गड़बड़ी मुख्य रूप से पोटाश की बिक्री में भारी कमी के कारण हुई, जो खरीफ 2021 में 14 लाख टन से घटकर खरीफ 2022 के लिए 7,70,000 टन हो गई। यह लगभग 45 फीसदी की गिरावट थी।
हाल ही में उद्योग के एक बयान में कहा गया, ‘हाल के महीनों में एमओपी का खुदरा मूल्य डीएपी की तुलना में अधिक रहा है, जो पारंपरिक रूप से इसके विपरीत हुआ करता था। इससे पोटाश की खपत बुरी तरह प्रभावित हुई है। इसकी वजह से पहले से ही खराब एनपीके उपयोग का अनुपात और असंतुलित हो गया है।’
तथ्य यह है कि नाइट्रोजन और फॉस्फोरस की तुलना में पोटाश पर सरकार की सब्सिडी कम रही है। इसका मतलब यह भी है कि आयात करने वाली कंपनियों के पास बिक्री में मंदी के लिए अग्रणी वैश्विक मूल्य वृद्धि के प्रभाव को किसानों पर डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
उद्योग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘फिलहाल डीएपी करीब 27,000 रुपये प्रति टन पर बिक रहा है, जबकि एमओपी करीब 35,000 रुपये प्रति टन की दर से बिक रहा है, जो आदर्श रूप से इसके विपरीत होना चाहिए।’ अधिकारी ने कहा, ‘इस असंतुलन को ठीक करने का एक तरीका यह है कि पोटाश पर प्रति किलोग्राम सब्सिडी को फॉस्फोरस के बराबर लाया जाए, जिससे खुदरा कीमतें कम होंगी।’
सरकार ने गैर-यूरिया उर्वरक सब्सिडी के अपने पिछले संशोधन में पोटाश के लिए अनुदान अप्रैल में निर्धारित 25.31 रुपये प्रति किलोग्राम से घटाकर अक्टूबर में 23.65 रुपये प्रति किलोग्राम कर दिया था। एनपीके उपयोग अनुपात 2009-10 में 4.3:2:1 पर लगभग आदर्श था लेकिन 2012-13 में 8.2:3.2:1 तक गड़बड़ हो गया। इसके बाद 2020-21 में यह सुधर कर 6.5:2.8:1 हो गया, लेकिन 2021-22 में यह फिर 7.7:3.1:1 हो गया।
व्यापार और उद्योग के सूत्रों ने कहा कि एमओपी की दरों में तेज उछाल का सबसे बड़ा कारण यूरोप में युद्ध है। एमओपी लगभग पूरी तरह से आयात किया जाता है। युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तेजी आई और आपूर्ति बाधित हुई। रूस-यूक्रेन की वैश्विक पोटाश उत्पादन में हिस्सेदारी लगभग 40 फीसदी है।
एक प्रमुख बाजार विश्लेषण फर्म के एक वरिष्ठ शोधकर्ता ने कहा, ‘युद्ध शुरू होने के बाद पोटाश की वैश्विक कीमतें 300-350 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 700-900 डॉलर प्रति टन हो गईं, हालांकि आपूर्ति फिर से शुरू हो गई है क्योंकि भारत ने कनाडा और अमेरिका से इसे खरीदना शुरू कर दिया है। लेकिन तभी से मांग-आपूर्ति बेमेल है।’ उन्होंने कहा कि पोटाश पर अपर्याप्त सब्सिडी के कारण एमओपी को बेचने और आयात करने वाली कंपनियों को मुनाफा नहीं होता है।